मुंबई: इतिहास खुद को दोहराता है! तब उद्धव ठाकरे, अब एकनाथ शिंदे, पार्टी नेताओं के सामने शर्मिंदगी..
मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह बस कुछ ही घंटे दूर है। कल इस बात की पुष्टि हो गई थी कि देवेंद्र फडणवीस, अजित पवार शपथ लेंगे। लेकिन एकनाथ शिंदे को लेकर सस्पेंस बरकरार रहा। आख़िरकार यह खत्म हो गया। शिंदे के नाम का एक पत्र राजभवन को भेजा गया है। इस दौरान अजब संयोग देखा गया। जिस तरह से 2014 में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को दुविधा का सामना करना पड़ा था। उसी तरह इस साल शिंदे को भी दुविधा का सामना करना पड़ा। ऐसे में 10 साल बाद इतिहास ने खुद को दोहराया है।
2014 में क्या हुआ था?
दरअसल 2014 में विधानसभा चुनाव हुए। उस समय सभी पार्टियां स्वतंत्र रूप से लड़ीं। बीजेपी को 122 सीटें मिलीं। शिवसेना ने 63 सीटें जीतीं और दूसरे स्थान पर रही। बीजेपी को बहुमत के लिए 23 विधायकों के समर्थन की जरूरत थी। इसके बिना सरकार नहीं बन सकती। इससे शिवसेना की सौदेबाजी की ताकत बढ़ गई थी। लेकिन 41 सीटें जीतने वाली शरद पवार की एनसीपी ने बीजेपी को बाहर से समर्थन देकर शिवसेना को झटका दे दिया। इसलिए बीजेपी सरकार आई और फडणवीस मुख्यमंत्री बने। शिवसेना को विपक्ष की बेंच पर बैठना पड़ा। एकनाथ शिंदे के पास विपक्ष के नेता का पद नहीं था।
तब शिंदे सबसे आगे थे
दो महीने तक शिवसेना विपक्ष में बैठ गई। इस दौरान विधायकों ने सत्ता में आने के लिए उद्धव ठाकरे पर दबाव बढ़ा दिया। कहा जाता है कि एकनाथ शिंदे सबसे आगे थे। विधायकों ने ठाकरे से कहा कि अब जब शिवसेना 15 साल से विपक्ष में बैठी है तो सत्ता में आना नितांत आवश्यक है। अंततः 5 दिसंबर 2014 को शिवसेना फडणवीस सरकार में शामिल हो गई। ठाकरे के इस फैसले को लेने में शिंदे की भूमिका अहम थी।
एनसीपी की वजह से शिवसेना की सौदेबाजी की ताकत कम
अब जब 2024 में सरकार गठन की प्रक्रिया चल रही है तो शिवसेना के सूत्र शिंदे के साथ हैं। अब भी एनसीपी की वजह से शिवसेना की सौदेबाजी की ताकत कम हो गई है। अजित पवार की पार्टी पहले ही मुख्यमंत्री पद के लिए देवेंद्र फडणवीस का समर्थन कर चुकी है। इससे मुख्यमंत्री पद पर बीजेपी का दावा और भी मजबूत हो गया। बीजेपी और एनसीपी की संयुक्त ताकत बहुमत से आगे बढ़ती देख शिवसेना को बैकफुट पर आना पड़ा।
कैसे माने शिंदे
शिंदे सत्ता से बाहर रहकर बीजेपी और एनसीपी सरकार को समर्थन देने की सोच रहे थे। लेकिन विधायक सत्ता में बने रहने पर अड़े रहे। विधायकों ने पक्ष रखा कि विकास कार्यों के लिए सत्ता में आना जरूरी है। इसलिए 2014 में जिस दुविधा में ठाकरे फंसे थे, शिंदे भी उसी दुविधा में फंस गए। आखिरकार विधायकों की जिद को देखते हुए शिंदे ने सत्ता में आने का फैसला किया। वह खुद उपमुख्यमंत्री बनने को तैयार हो गए।
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