उत्तर प्रदेश: लखनऊ-कथक का पर्याय थे लखनऊ घराने के आखिरी 'महाराज' पंडित बिरजू, नृत्य में किए अनोखे प्रयोग
तकरीबन एक दशक पहले की बात है। पंडित बिरजू महाराज को देखने के लिए सफेद बारादरी में लोग जुटे थे। पंडितजी बड़े करीने से तैयार हुए। ठीक उसी तरह जैसा वह प्रस्तुतियों के पहले हुआ करते थे। आंखों में सुरमा, होठों पर लाली...। पीले कुर्ते के साथ सिर पर टोपी, मैरून सदरी पहने और कांधे पर दुशाला लिए वह हॉल में आए। दर्शक इंतजार में थे कि अपनी भावपूर्ण मुद्राओं की प्रस्तुतियां देंगे, लेकिन महाराज तो उस रोज किसी और ही मूड में थे। कह उठे, आज गाना चाहते हैं। कथक किसी और रोज। कुछ किस्से सुनाए और फिर सुर साधे...। शिष्याओं ने प्रस्तुति शुरू की। कुछ समय बीता ही था कि महाराज उठ खड़े हुए और नृत्य करने लगे। उनके भावपूर्ण अंदाज ने सबका मन मोह लिया।
लखनऊ घराने के कथक को पंडित बिरजू महाराज ने अलग ही वैभव दिया। परंपरागत शैली में अभिनव प्रयोग किए। और यही प्रयोग बने कथक की नई पहचान। भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और नामचीन कथकाचार्य कुमकुम धर कहती हैं कि अच्छन महाराज (पिता), लच्छू महाराज और शंभू महाराज (चाचा) से उन्होंने कथक की परंपरा पाई। लच्छू महाराज लास्य अंग के लिए बहुत प्रसिद्ध थे और शंभू महाराज की तेजी लाजवाब थी। पंडित बिरजू महाराज ने यह सब तो सीखा ही और फिर इसे समृद्ध करने के लिए काफी काम किया। उनका हस्तकों का प्रयोग बेमिसाल था। फिर एब्सट्रैक्ट फॉर्म में लय को शामिल किया। वह जितने अच्छे नर्तक थे उतने ही अच्छे गायक और संगीतकार भी। यही वजह है कि वह कथक को सेट पर लाए। यह लोगों को आकर्षित करने वाला था। विदेश तक में उनकी प्रस्तुतियों ने धूम मचाई और फिर आगे सब कुछ एक किवदंती है। मौजूदा समय में वह कथक का पर्याय थे।
समूह नृत्य को अलग ही स्तर दिया
संगीत नाटक अकादमी की पूर्व अध्यक्ष पूर्णिमा पांडेय कहती हैं कि पंडित बिरजू महाराज ने कथक में समूह नृत्य को अलग ही स्तर पर पहुंचाया। उन्होंने कई नृत्य नाटिकाएं कंपोज कीं। उन्हें बेहद भावपूर्ण तरीके से पेश किया। पहले कथक की प्रस्तुतियां बेहद लंबी होती थीं। एक-एक नर्तक दो से तीन घंटों की प्रस्तुति देता था। महाराज ने हर आइटम का टाइम छोटा किया और इसे सभी के लिए आसान बना दिया, जिसे लोग आसानी से सीख सकते थे और समझ सकते थे।
कथक को आम जिंदगी से जोड़ा
कुमकुम धर कहती हैं कि महाराज ने कई ऐसे प्रयोग किए, जिनसे कथक को आम जिंदगी से जोड़ा। वह फाइल कथा कहते थे। ऑफिस में फाइलें कैसे चलती हैं इसको अपनी मुद्राओं से दर्शाते थे। एडिटिंग कैसे होती है इसे वह कथक में दिखाते थे। उन्होंने तकरीबन 40 साल पहले एक नृत्य नाटिका कंपोज की थी, जिसमें वह खो-खो, क्रिकेट जैसे खेल कथक की मुद्राओं और भावों के जरिए दिखाते थे।
पुरस्कार और सम्मान
पद्म विभूषण (1986), संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1964), नृत्य चूड़ामणि पुरस्कार (1986), कालिदास सम्मान (1987), लता मंगेशकर पुरस्कार (2002), इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की मानद उपाधि, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से मानद उपाधि, संगम कला अवॉर्ड, भरत मुनि सम्मान।
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